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किस्मत का खेल
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मैंने किस्मत का खेल देखा (कविता) मैंने किस्मत का ऐसा खेल देखा प्रतिभाओं को छुपते देखा जीरो को चमकते देखा मन के अंदर डर को देखा डर से आतंकित मन ने सब को नीचा करते देखा मैंने किस्मत का ऐसा खेल देखा........ जुल्मों को होते आंखों देखा अपराधबोध होकर मैंने किस्मत पर आरोप लगाकर देखा कर्तव्य विमुख होकर किस्मत का रोना देखा ईश्वर से झोली भरते देखा मानव से खाली झोली करते देखा किस्मत से संधि करते देखा मान सम्मान को गिरते देखा मैंने किस्मत का ऐसा खेल देखा गुलाम बनाते अहंकार को देखा चुटकी में किस्मत को बदलते देखा आदमी को समाज की कठपुतली बनते देखा मैंने किस्मत का ऐसा खेल देखा अपनों से अपनों का तिरस्कार देखा अपनों से परायो जैसा बर्ताव देखा किस्मत से विश्वास उठते देखा वक्त की जंजीरों से आदमी को तड़पते देखा मैंने किस्मत का ऐसा खेल देखा - छोटे गणेश ( अभय )
वीररस कविता
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शीर्षक - ---- छाले मेरा क्या बिगाडेंगे_ _ _ छाले मेरा क्या बिगाड़़लेंगे ठाना है मैंने मंजिल को पाना राह पथरीली ककंरीली है जिद मेरी भी हठीली है पाऊंगा मंजिल एक दिन जीवन की रीत यही है छाले मेरा क्या बिगाड़लेंगे ठाना है मैंने मंजिल को पाना कम ना होने दूंगा साहस हर कांटे को निकालूंगा चलते चलते पाऊंगा चाहत और मंजिल को पाऊंगा छाले मेरा क्या बिगाड़लेंगे ठाना है मैंने मंजिल को पाना राम कृष्ण का वंशज हूं मैं उनके गुण दोहराउंगा धैर्य शौर्य से एक दिन में अपनी मंजिल पाऊंगा छाले मेरा क्या बिगाड़लेंगे ठाना है मैंने मंजिल को पाना - छोटे गणेश ( अभय )
मां का जन्मदिन।
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मैं अभय चतुर्वेदी। ब्लॉग पर अपनी आत्म अभिव्यक्ति व्यक्त कर रहा हूं। कृपया मेरा उत्साह वर्धन करें। पहली कविता अपनी मां के लिए प्रेषित है। माँ ( कविता) मां शब्द करुणा भरा है बोलकर आनंद आता है सब लिखते इस विषय पर कविता तो आज हम भी बन गए रचयिता यह वही जननी है जो जन्म देती एक बालक को पाल पोस कर बनाती महानायक मां से जीवन है सुखदायक कुछ बालक ऐसे होते हैं जिनपर आता क्रोध मुझे अपनी मां से कहते जो है बिना कुछ सोचे समझे पता नहीं ऐसे बालक को मिलती कहां से ऐसी भावना पालती है जिसे जो बिना स्वार्थ की भावना इस विषय पर कोई भी तो लिखने में समर्थ है हजारों पन्ने क्योंकि यह वही मां है जो लिखती ममता के सहस्त्रो पन्ने छोटा गणेश